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24.सांख्य योग

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -- प्यारे उद्धव! अब मैं तुम्हें सांख्य शास्त्र का निर्णय सुनाता हूं। प्राचीन काल के बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने इसका निश्चय किया है।जब जीव इसे भली-भांति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धि मूलक सुख-दुखआदि रूप भ्रम का तत्काल त्याग कर देता है। 
युगो से पूर्व प्रलयकाल में आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं-- इन सभी अवस्थाओं में यह संपूर्ण दृश्य और दृष्टा, जगत और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवलब्रह्म होते हैं। 
इसमें संदेह नहीं कि ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल-- अद्वितीय सत्य है; मन और वाणी की उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिंबित जीव के रूप में- दृश्यऔर दृष्टा के रूपमें- दो भागों में विभक्त सा हो गया।

 उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप हैं,पुरुष कहते हैं। 
उद्धव जी! मैंने ही जीवो के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृतिको क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व,रज और तम- यह 3 गुण प्रकट हुए। 
उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महतत्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महतत्त्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवोको मोह में डालने वाला है। 
वह तीन प्रकार का है_सात्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतनमात्रा,इंद्रिय और मन का कारण है; इसलिए वह जड़ चेतन-उभयात्मक है। तामस अहंकार से पंचतनमात्राएं और उनसे पांच भूतों की उत्पत्ति हुई।तथा राजसअहंकार से इंद्रियां और सात्विक अहंकार से इंद्रियों के अधिष्ठाता *11देवता*प्रकट हुए। 
यह सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गए और उन्होंने यह ब्रह्मांडरूप अंड उत्पन्न किया। यह अंड मेरा उत्तम निवास स्थान है। जब वह अंड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूपसे इसमें विराजमान हो गया। 

मेरी नाभिसे विश्वकमलकी उत्पत्ति हुई।उसी पर ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ। विश्वसमष्टिके अंतःकरण ब्रह्माने पहले बहुत बड़ीतपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुणके द्वारा भू:, भुव:, स्वः अर्थात पृथ्वी,अंतरिक्ष और स्वर्ग-इन तीन लोकोकी और इनके लोकपालों की रचना की। देवताओं के निवास के लिए स्वर्लोक, भूत-प्रेत आदि के लिए भुवर्लोक(अंतरिक्ष) और मनुष्य आदि के लिए भूर्लोक(पृथ्वी लोक)का निश्चय किया गया।इन तीनों लोको से ऊपर महर्लोक,तपलोक तक लोग आदिसिद्धौ के निवास स्थान हुए। सृष्टिकार्यमें समर्थ ब्रह्माजीने असुर और नागोंके लिए पृथ्वीके नीचे अतल,वितल,सुतल आदि सात पाताल बनाएं। 

इन्हीं तीनों लोकों में त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार विविध गतियां प्राप्त होती है। योग,तपस्या और सन्यास के द्वारा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोगसे मेरा परमधाम मिलता है। यह सारा जगत कर्म और उनके संस्कारों से युक्त है।मैं ही कालरूपसे कर्मों के अनुसार उनके फलका विधान करता हूं। इस गुण प्रवाह में पडकर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है- कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्चगति प्राप्त हो जाती है। जगतमें छोटे-बड़े,मोटे-पतले---जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही सिद्ध होते हैं।

जिसके आदि और अंत में जो है,वही बीच में भी है और वही सत्य है। विकार तो केवल व्यवहार के लिए की हुई कल्पना मात्र है। जैसे कंगन-कुंडल आदि सोने के विकार और घड़े-सकोरे आदि मिट्टी के विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बाद में भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे।अतः बीच में भी वे सोना या मिट्टी ही है।

पूर्ववर्ती कारण(महतत्व आदि) भी जिस परम कारण को उपादान कारण बनाकर अपर(अहंकार आदि) कार्य-वर्ग की सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्य के आदि और अंत में विद्यमान रहता है वही सत्य है। इस प्रपंच का उपादान-कारण प्रकृति है,परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करनेवाला का काल है।व्यवहार-काल की यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रह्मस्वरूप है और मैं वही शुद्धब्रह्म हूं।

जब तक परमात्मा की ईक्षणशक्ति अपनाकाम करती रहती है, तब तक उनकी पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है, तब तक जीवो के कर्म भोग के लिए कारण-कार्यरूप से अथवा पिता-पुत्र आदिके रूपसे यह सृष्टिचक्र निरंतर चलता रहता है।


यह विराट ही विविध लोकों की सृष्टि, स्थिति और संहांर की लीला भूमि है ।जब मैं कॉल रुप से इस में व्याप्त होता हूं, प्रलय  का संकल्प करता हूं ,तब यह भुवनों के साथ विनाश रूप विभाग के योग्य हो जाता है।

उसके लीन होने की प्रक्रिया यह है कि-

प्राणियों के शरीर अन्न में ,अन्न बीज में ,बीज भूमि में और भूमि गंध तनमात्रा में लीन हो जाती है,।

 गंध जल में ,जल अपने गुण रस में, रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है ।

रूप वायु में, वायु स्पर्शमें ,स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्द तन_ मात्रा में लीन हो जाता है।

 इंद्रियां अपने कारण देवताओं में और अंततः राजस् अहंकार में समा जाती है ।

हे सौम्य! राजस  अहंकार अपने नियंता सात्विक अहंकार रूप मन में, शब्द तन मात्रा पंच भूतों के कारण तामस अहंकार में और सारे जगत को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहनकार मह तत्व में लीन हो जाता है।

 ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति प्रधान मह तत्त्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाता है ,गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी का काल में लीन हो जाती है। 

कॉल मायामय जीव में और जीव  आत्मा में लीन हो जाता है ।आत्मा किसी में लीन नहीं होता ,वह उपाधि रहित अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है। वह जगत की सृष्टि और लय  अधिष्ठान एवं अवधि है। 

उद्धव जी !जो इस प्रकार विवेक दृष्टि से देखता है ,उसके चित्  में यह प्रपंच का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित उसके चित्त में स्फूर्ति हो  भी जाए तो वह ,अधिक काल तक हृदय में ठहर कैसे सकता है, ।क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अंधकार ठहर सकता है ?

उद्धव जी ! मैं कार्य और कारण दोनों का साक्षी हूं। मैंने तुम्हें सृष्टि के प्रलय और प्रलय से इस सृष्टि तक की सांख्य विधि बदला दी ।इसमें संदेह की गांठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।

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