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29.भागवतधर्म,ब्रह्मविद्या रहस्य

श्री भगवान ने कहा -प्रिय उद्धव! अब मैं तुम्हें अपने उन मंगलमय भागवत धर्मों का उपदेश करता हूं,जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसार रूप दुर्जय मृत्युको अनायास ही जीत लेता है।8.

उद्धव जी! मेरे भक्तोंको चाहिए कि अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करें और धीरे-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढाये। कुछ ही दिनों में उसके मन और चित् मुझमें समर्पित हो जाएंगे।उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मों में रम जाएंगे।9.


मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानों में निवास करते हो, उन्ही में रहे और देवता असुर अथवा मनुष्य में जो मेरे अनन्य भक्त हो, उनके आचरणों का अनुसरण करें।10.
पर्व के अवसरों पर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्यआदि महाराजोचित ठाट -बाटसे मेरी यात्रा आदि के महोत्सव करें।11.

शुद्ध अंतःकरण पुरुष आकाश के समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवम आवरण शून्य मुझ परमात्मा को ही समस्त प्राणियों और अपने हृदय में स्थित देखें।12.

निर्मल बुद्धि उद्धव जी! जो साधक केवल इस ज्ञान दृष्टि का आश्रय लेकर संपूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण  और चांडाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिंगारी तथा कृपालु और क्रूर में समान दृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिए। 13,14.
जब निरंतर सभी नर-नारियों में मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनों में साधक के चित से स्पर्धा(होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं।15.
अपने ही लोग यदि हंसी करें तो करने दे,उनकी परवाह न करें; "मैं अच्छा हूं, वह बुरा है" ऐसी देहदृष्टि को और लोक -लज्जा  को छोड़ दे और कुत्ते,चांडाल, गौ एवं गधे को भी पृथ्वी पर गिर कर साष्टांग दंडवत प्रणाम करें 16.
जब तक समस्त प्राणियों में मेरी भावना -भगवत भावना ना होने लगे, तब तक इस प्रकार से मन, वाणी और शरीर के सभी संकल्पों और कर्मों द्वारा मेरी उपासना करता रहे। 17.
उद्धव जी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि-ब्रह्मबुद्धि का अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मस्वरूप दीखने लगता है। 
ऐसी दृष्टि हो जाने पर सारे संशय -संदेह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसार दृष्टि से उपराम हो जाता है। 18.

*अयम ही सर्व कल्पानाम सध्रीचीनो मतो मम। 

मदभाव: सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृतिभि:।।*19.

*जब निरंतर समस्त नर नारियों में मनसा वाचा कर्मणा (सभी संकल्पों और कर्मों द्वारा) भगवद भावना की जाती हैं तब शीघ्र ही साधक को सब कुछ आत्म स्वरूप दीखने लगता है और सारे संशय संदेह अपने आप निवृत हो जाते हैं।*

 *परमात्मा प्राप्ति के जितने साधन हैं, उनमें सबसे श्रेष्ठ साधन यही है कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मनसा वाचा कर्मणा समस्त वृत्तियों से मेरी ही भावना की जाए।यही सर्वोत्तम,निष्काम,निर्गुण और मेरे द्वारा निश्चित भागवत धर्म हैं।*19.

उद्धव जी! यह मेरा अपना भागवत धर्म है;
इसको एक बार आरंभ करदेने के बाद फिर किसी प्रकार की विघ्न-बाधा से इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निश्चिय किया है।20.
भागवतधर्म में किसी प्रकार की त्रुटि पडनी तो दूर रही -यदि इस धर्म का साधक भय-शोक आदि के अवसर पर होने वाली भावना और रोने पीटने,भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्काम भावसे मुझे समर्पित कर दें तो वह भी मेरी प्रसन्नता के कारण धर्म बन जाते हैं।21.
विवेकियो के विवेक और चतुरो की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ  अविनाशी एवं सत्य तत्व को प्राप्त कर ले।22.

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