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28परमार्थ निरूपण

*परछाई, प्रतिध्वनि और सीपी आदि में चांदी आदि के आभास*यद्यपि है तो सर्वथा मिथ्या,परंतु उनके द्वारा     मनुष्य के हृदय में भय_ कंप आदि का संचार हो जाता है।   वैसे ही *देह आदि सभी वस्तुएं हैं तो सर्वथा मिथ्या ही,*     परंतु जब तक ज्ञान के द्वारा इनकी असत्यता का बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यंतिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक यह भी अज्ञानियों को भयभीत करती रहती है। 

                        *सोने के कंगन, कुंडल आदि बहुत से आभूषण बनते हैं; परंतु जब वह गहने नहीं बने थे तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे तब भी सोना रहेगा। इसलिए जब बीच में उसके कंगन_ कुंडल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है।*        ठीक ऐसे ही जगत का आदि, अंत और मध्य परमात्मा ही हैं। वास्तव में वही सत्य तत्व हैं।।सत्यम परम धीमहि।।


                



 यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति दृष्टा और दृश्य के भेद से दो प्रकार का जगत जान पड़ता है तथा भी परमार्थ दृष्टि से देखने पर यह सब एक अधिष्ठान शुरू की है इसलिए किसी के साथ घोर और मोड स्वभाव तथा उसके अनुसार कर्मों की स्तुति करनी चाहिए और ना नींद आ सर्वदा अद्वैत दृष्टि रखनी चाहिए।।1।। जो पुरुष दूसरों के स्वभाव और उनके कर्मों की प्रशंसा अथवा निंदा करते हैं वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ साधन से हो जाते हैं क्योंकि साजन तो रोहित के अभी निवेश का उसके प्रति सचेत बुद्धि का निषेध करता है और प्रशंसा तथा निंदा उसकी सत्यता के ब्रह्म को और भी दृढ़ करती है।2। सभी इंद्रियां राज्य सरकार के कार्य है जब वे निर्धारित हो जाती है तब शरीर का अभिमन्यु जी चेतना सुनने हो जाता है अर्थात उसे बाहरी शरीर की स्मृति नहीं रहती उस समय यदि मन बच रहा तब तो वह सपने के जूते दृश्य में भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया तब तो जीव मृत्यु के समान गार्ड मित्रा सुषुप्ति में लीन हो जाता है वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्मसरूप को भूलकर नाना वस्तुओं का दर्शन करने लगता है तब वह स्वप्न के समान झूठे दृश्य में फस जाता है अथवा मृत्यु के समान ज्ञान में लीन हो जाता है।।3।।

By direct perception, logical deduction, scriptural testimony and personal realization, one should know that this world has a beginning and an end and so is not the ultimate reality. Thus one should live in this world without attachment.9
प्रत्यक्ष अनुमान शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणों से यह सिद्ध है कि यह जगत उत्पत्ति विनाश शील होने के कारण अनित्य एवं असत्य हैं। यह बात जानकर जगत में असंग भाव से बिचरना चाहिए।9।

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