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2. कवि योगेश्वर भागवत

भक्त जनों के हृदय से कभी दूर ना होने वाले अच्युतभगवान के चरणों की नित्य-निरंतर उपासना ही इस संसार में परम कल्याण--आत्यंतिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत पदार्थों में अहंता एवं ममता हो जाने के कारण जिन लोगों की चित्तवृत्ति उद्विग्न हो रही है, उनका भय भी इस उपासना का अनुष्ठान करने पर पूर्णतया निवृत हो जाता है। 33 


भगवान ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमता से साक्षात अपनी प्राप्ति के लिए जो उपाय स्वयं श्री मुख से बतलाए हैं, उन्हें ही *भागवत धर्म* समझो। 34

 इन भागवत धर्मों का अवलंबन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीड़ित नहीं होता और नेत्र बंद करके दौड़ने पर भी अर्थात विधि-विधान में त्रुटि हो जाने पर भी न तो मार्ग से स्खलित ही होता है और न तो पतित-- फल से वंचित ही होता है।35. 



 (भागवत धर्म का पालन करने वाले के लिए यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकार का कर्म ही करें।)वह शरीर, से वाणी से, मनसे, इंद्रियों से, बुद्धि से, अहंकार से, अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की आदतों से स्वभाव-वश जो-जो करें, वह सब परम पुरुष भगवान नारायण के लिए ही है-- इस भाव से उन्हें समर्पण कर दें।(यही सरल से सरल सीधा सा भागवत-धर्म है।)36.



 ईश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही मैं देवताओं में मनुष्य हूं इस प्रकार का भ्रम विपर्यय हो जाता है इस दे आदि अन्य वस्तु में अभी निवेश तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा मृत्यु रोग आदि अनेकों में होते हैं इसलिए अपने गुरु को ही आराध्य देव परम प्रीतम मानकर अनन्य भक्त इसके द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिए 37 भगवान के अतिरिक्त आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं परंतु न होने पर भी इसकी प्रतीति इसका चिंतन करने वाले को उसके चिंतन के कारण उधर मन लगने के कारण ही होती है -जैसे स्वप्न के समय स्वप्न दृष्टा की कल्पना से अथवा जागृत अवस्था में नाना प्रकार के मनोरथ हों से एक विलक्षण ही सृष्टि दिखने लगती है इसलिए विचार वन पुरुष को चाहिए कि सांसारिक कर्मों के संबंध में संकल्प विकल्प करने वाले मन को रोक दे कैद कर ले बस ऐसा करते ही उसे अभय पद की परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी 38 संसार में भगवान के जन्म की ओर लीला की बहुत सी मंगलमय कथाएं प्रसिद्ध है उनको सुनते रहना चाहिए उन गुणों और लीलाओं का स्मरण दिलाने वाले भगवान के बहुत से नाम भी प्रसिद्ध है लार्सन को छोड़कर उनका गान करते रहना चाहिए इस प्रकार किसी भी व्यक्ति वस्तु और स्थान में आ सकती ना करके विचरण करते रहना चाहिए 39 जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत नियम ले लेता है उसके हृदय में अपने परम प्रियतम प्रभु के नाम कीर्तन से अनुराग का प्रेम का अंकुर उगाता है उसका चित्र द्रवित हो जाता है अब वह साधारण लोगों की स्थिति से ऊपर उठ जाता है लोगों की मान्यताओं उदाहरणों से परे हो जाता है दम से नहीं सुबह से ही मतवाला साहू कर कभी खिलखिला कर हंसने लगता है तो कभी फूट-फूट कर रोने लगता है कभी ऊंचे स्वर से भगवान को पुकारने लगता है तो कभी मधुर स्वर से उनके गुणों का गान करने लगता है कभी-कभी जब वह अपने प्रियतम को अपने नेत्रों के सामने अनुभव करता है तब उन्हें रिझाने के लिए भी करने लगता है। 40 राजन! यह आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी ग्रह नक्षत्र प्राणी दिशाएं वृक्ष वनस्पति नदी और समुद्र सब के सब भगवान के शरीर है सभी रूपों में स्वयं भगवान प्रकट है ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है चाहे वह प्राणी ह या प्राणी उसे अनन्य भाव से भगवत भाव से प्रणाम करता है41.






*भागवत धर्म एक ऐसी वस्तु है जिसे कानों से सुनने, वाणी से उच्चारण करने ,चित से स्मरण करने ,हृदय से स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका  अनुमोदन करने से ही मनुष्य   उसी  क्षण  पवित्र  हो जाता  है ;चाहे  वह  भगवान का  एवं  सारे  संसार का द्रोही ही क्यों ना हो।*


*शरीर से, वाणी से, मनसे, इंद्रियों से ,बुद्धि से, अहंकार से ,अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की आदतों से स्वभाववश जो जो करें, वह सब परम पुरुष  भगवान  नारायण  के  लिए ही  है _इस भाव से उन्हें समर्पण कर दे । यही सरल से सरल, सीधा_ सा भागवत धर्म है।*

                                       *जैसे भोजन करने वाले को प्रत्येक ग्रास के साथ तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवन शक्ति का संचार), और  क्षुधा_ निवृत्ति __यह तीनों एक साथ होते जाते हैं ;वैसे ही जो मनुष्य भगवान की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजन के प्रत्येक क्षण में भगवान के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद  प्रभु के स्वरूप का अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं में वैराग्य _इन तीनों की एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है।जब यह सब प्राप्त हो जाते हैं तब वह स्वयं परम शांति का अनुभव करने लगता है।*

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