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 परिग्रहो हि दु:खाय यद् यत्प्रियतमं नृणाम् ।

अनन्तं सुखमाप्नोति तद् विद्वान् यस्त्वकिञ्चन: ॥ १ ॥

अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा--

राजन! मनुष्य को जो वस्तुएं अत्यंत प्रिय लगती है, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दुख का कारण है। जो बुद्धिमान पुरुष यह बात समझ कर अकिंचन भाव से रहता है-- शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता-- उसे अनंत सुख स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है।11/9/1

एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिए हुए था। 

उस समय दूसरे बलवान पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीनने के लिए उसे घेरकर चोचे मारने लगे। 

जब कुरर पक्षी ने अपनी चोच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला।11/9/2


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29.भागवतधर्म,ब्रह्मविद्या रहस्य

श्री भगवान ने कहा -प्रिय उद्धव! अब मैं तुम्हें अपने उन मंगलमय भागवत धर्मों का उपदेश करता हूं,जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसार रूप दुर्जय मृत्युको अनायास ही जीत लेता है।8. उद्धव जी! मेरे भक्तोंको चाहिए कि अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करें और धीरे-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढाये। कुछ ही दिनों में उसके मन और चित् मुझमें समर्पित हो जाएंगे।उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मों में रम जाएंगे।9. मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानों में निवास करते हो, उन्ही में रहे और देवता असुर अथवा मनुष्य में जो मेरे अनन्य भक्त हो, उनके आचरणों का अनुसरण करें।10. पर्व के अवसरों पर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्यआदि महाराजोचित ठाट -बाटसे मेरी यात्रा आदि के महोत्सव करें।11. शुद्ध अंतःकरण पुरुष आकाश के समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवम आवरण शून्य मुझ परमात्मा को ही समस्त प्राणियों और अपने हृदय में स्थित देखें।12. निर्मल बुद्धि उद्धव जी! जो साधक केवल इस ज्ञान दृष्टि का आश्रय लेकर संपूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है

24.सांख्य योग

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -- प्यारे उद्धव! अब मैं तुम्हें सांख्य शास्त्र का निर्णय सुनाता हूं। प्राचीन काल के बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने इसका निश्चय किया है।जब जीव इसे भली-भांति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धि मूलक सुख-दुखआदि रूप भ्रम का तत्काल त्याग कर देता है।  युगो से पूर्व प्रलयकाल में आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं-- इन सभी अवस्थाओं में यह संपूर्ण दृश्य और दृष्टा, जगत और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवलब्रह्म होते हैं।  इसमें संदेह नहीं कि ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल-- अद्वितीय सत्य है; मन और वाणी की उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिंबित जीव के रूप में- दृश्यऔर दृष्टा के रूपमें- दो भागों में विभक्त सा हो गया।  उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप हैं,पुरुष कहते हैं।  उद्धव जी! मैंने ही जीवो के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृतिको क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व,रज और तम- यह 3 गुण प्रकट हुए।  उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञान